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________________ 67 गाथा ६ स्पष्ट किया जा रहा है। उसी भगवान आत्मा को इस गाथा में ज्ञायकभाव नाम से संबोधित किया गया है। परमपारिणामिकभावरूप होने पर भी यहाँ उसे पारिणामिकभाव न कहकर ज्ञायकभाव ही कहा है; क्योंकि पारिणामिकभाव तो सभी द्रव्यों में समानरूप से पाया जाता है, पर ज्ञायकभाव आत्मा का असाधारण भाव है। यह ज्ञायकभाव वही है, जिसे पिछली गाथाओं में एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा कहा गया है। अब यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह एकत्व-विभक्त ज्ञायकभाव प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वह तो प्रमत्त और अप्रमत्त से परे गुणस्थानातीत है। ___ यद्यपि सिद्ध भी गुणस्थानातीत हैं, तथापि यहाँ सिद्धपर्याय की बात नहीं है; यहाँ तो गुणस्थानों में रहते हुए भी जो ज्ञायकभाव गुणस्थानरूप नहीं होता, उसकी बात है। यह ज्ञायकभाव न सिद्ध है और न संसारी है, यह तो संसारी और सिद्ध - दोनों अवस्थाओं में समानरूप से गुणस्थानातीत है। इसमें न गुणस्थानरूप अवस्था है और न गुणस्थानों के अभावरूप अवस्था है; यह अवस्थारूप है ही नहीं, यह तो त्रिकाली ध्रुवस्वभावरूप भाव है। यह पर्यायस्वभाव की बात नहीं है, द्रव्यस्वभाव की बात है। ___ यह उस ज्ञायकभावरूप द्रव्यस्वभाव की बात है जो अनादि अनन्त, नित्य उद्योतरूप है। यह स्वयंसिद्ध है, किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, अतः अनादि सत्तास्वरूप है; इसका कभी नाश नहीं होगा, अत: अनन्त है; क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त नहीं होता, इसलिए नित्य उद्योतरूप है; और ज्ञानियों के नित्य अनुभव में आता है, गुप्त नहीं है, प्रगट है; अतः प्रकाशमानज्योति है। - ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यह किसी अन्य की बात नहीं है, अपने ही आत्मा की बात है, अपने ही आत्मस्वभाव की बात
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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