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गाथा ६
स्पष्ट किया जा रहा है। उसी भगवान आत्मा को इस गाथा में ज्ञायकभाव नाम से संबोधित किया गया है।
परमपारिणामिकभावरूप होने पर भी यहाँ उसे पारिणामिकभाव न कहकर ज्ञायकभाव ही कहा है; क्योंकि पारिणामिकभाव तो सभी द्रव्यों में समानरूप से पाया जाता है, पर ज्ञायकभाव आत्मा का असाधारण भाव है।
यह ज्ञायकभाव वही है, जिसे पिछली गाथाओं में एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा कहा गया है। अब यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह एकत्व-विभक्त ज्ञायकभाव प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वह तो प्रमत्त और अप्रमत्त से परे गुणस्थानातीत है। ___ यद्यपि सिद्ध भी गुणस्थानातीत हैं, तथापि यहाँ सिद्धपर्याय की बात नहीं है; यहाँ तो गुणस्थानों में रहते हुए भी जो ज्ञायकभाव गुणस्थानरूप नहीं होता, उसकी बात है। यह ज्ञायकभाव न सिद्ध है और न संसारी है, यह तो संसारी और सिद्ध - दोनों अवस्थाओं में समानरूप से गुणस्थानातीत है। इसमें न गुणस्थानरूप अवस्था है और न गुणस्थानों के अभावरूप अवस्था है; यह अवस्थारूप है ही नहीं, यह तो त्रिकाली ध्रुवस्वभावरूप भाव है। यह पर्यायस्वभाव की बात नहीं है, द्रव्यस्वभाव की बात है। ___ यह उस ज्ञायकभावरूप द्रव्यस्वभाव की बात है जो अनादि
अनन्त, नित्य उद्योतरूप है। यह स्वयंसिद्ध है, किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, अतः अनादि सत्तास्वरूप है; इसका कभी नाश नहीं होगा, अत: अनन्त है; क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त नहीं होता, इसलिए नित्य उद्योतरूप है; और ज्ञानियों के नित्य अनुभव में आता है, गुप्त नहीं है, प्रगट है; अतः प्रकाशमानज्योति है। - ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यह किसी अन्य की बात नहीं है, अपने ही आत्मा की बात है, अपने ही आत्मस्वभाव की बात