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समयसार अनुशीलन
है । प्रमत्त और अप्रमत्त दशाओं से पार यह त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव मैं ही हूँ; इसमें ही अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है; अत: यही दृष्टि का विषय है । यही ध्यान का ध्येय है, इसमें ही लीन होने का नाम ध्यान है; इसमें ही लगातार अन्तर्मुहूर्त्त तक लीन रहने से केवलज्ञान और अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। मुक्तिमार्ग का मूल आधार यही ज्ञायकभाव है; अतः यही एकमात्र परम-उपादेय है ।
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अब यह स्पष्ट करते हैं कि यह ज्ञायकभाव प्रमत्त और अप्रमत्त क्यों नहीं है ? तात्पर्य यह है कि 'ज्ञायकभाव प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं है' इस कथन की विवक्षा क्या है ?
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यद्यपि अनादि बंधपर्याय की अपेक्षा यह ज्ञायकभाव संसार अवस्था में पुद्गलकर्मों के साथ दूध-पानी की तरह एकमेक हो रहा है; तथापि जब द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा से देखते हैं तो शुभाशुभभावों के स्वभावरूप परिणमित नहीं होने से प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है ।
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ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म और उनके उदय में होनेवाले शरीरादि संयोगों के साथ ज्ञायकभाव का संबंध दूध और पानी की तरह है । यह कहकर दोनों के संबंध का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। तात्पर्यं यह है कि आत्मा और कर्मों का संबंध न तो ज्ञान और आत्मा के समान तादात्म्यसंबंधरूप ही है और न एक बर्तन में एकसाथ रखे हुए गेहुँओं और कंकड़ों के समान एकदम औपचारिक ही है; अपितु वे दोनों एक न होकर भी दूध और पानी के समान एकमेक अवश्य हो रहे हैं। कंकड़ और गेहूँ तो एकदम पृथक्-पृथक् ही हैं, उनका तो परस्पर मात्र इतना ही संबंध है कि वे एक बर्तन में एकसाथ रखे हुए हैं; पर दूध-पानी की स्थिति ऐसी नहीं है, वे पूर्णत: एक क्षेत्रावगाह हो गये हैं, फिर भी हैं तो पृथक्-पृथक् ही। गेहूँ और कंकड़ों का तो क्षेत्र भी अलग-अलग है, पर दूध और पानी आकाश के एकक्षेत्र में ही एकसाथ रह रहे हैं ।