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________________ 59 गाथा ६ यद्यपि आत्मा और कर्म दूध-पानी की तरह एकक्षेत्रावगाही होकर भी पृथक्-पृथक् ही हैं, तथापि बंधपर्याय की ओर से देखने पर उन्हें एकरूप ही कहते हैं। __ जिनका अन्त अत्यन्त कठिन है, ऐसी विभिन्न प्रकार की कषायों के उदय के वश होकर, पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले जो अनेकप्रकार के शुभाशुभभाव होते हैं, उनके स्वभावरूप यह भगवान आत्मा परिणमित नहीं होता; इसकारण वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है। यह द्रव्यस्वभाव की बात है। शुभाशुभभाव के स्वभावरूप परिणमित होना एकप्रकार से जड़रूप परिणमित होना ही है; क्योंकि यह परिणमन जड़कर्म के उदय के वश होता है। जिसप्रकार मालिक की आज्ञा से भृत्य द्वारा किए गये कार्य को मालिक का ही कार्य कहा जाता है; उसीप्रकार जिसके वश जो परिणमन होता है, उस परिणमन को उसी का कहा जाता है। अतः जड़कर्म के उदय के वश से हुए शुभाशुभभावों को जड़रूप ही कहा जाता है । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्याति टीका में भी शुभाशुभरूप विभावभावों को जड़स्वभावी कहा गया है। यह ज्ञायकभाव उन शुभाशुभभावोंरूप परिणमित नहीं होता; इसीकारण वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है। __जड़कर्म के वश का अर्थ यह नहीं समझना कि जड़कर्म उसे बलात् अपने वश में करता है, अपितु यह जीव स्वयं अपनी कमजोरी के कारण, पर्यायगत योग्यता के कारण उनके वश होता है। यह एक स्वतंत्र प्रकरण है और विशेष स्पष्टीकरण के लिए गहरे मंथन की अपेक्षा रखता है । यहाँ इसका विस्तार अभीष्ट नहीं है। आगे यथास्थान इस पर विशेष प्रकाश डाला जावेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ ऐसा नहीं कहा कि अशुभभावरूप परिणमित नहीं होने से प्रमत्त नहीं है और शुभभावरूप
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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