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________________ 383 कलश ३४ यदि समझने में अधिक काल लगे तो छहमास से अधिक नहीं लगेगा। इसलिए यहाँ यह उपदेश दिया है कि अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल का त्याग करके इसमें लग जाने से शीघ्र ही स्वरूप की प्राप्ति हो जावेगी - ऐसा उपदेश है।" 'अभ्यास' शब्द का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं - "चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है। अन्तर्मुख होने का पुरुषार्थ करे और प्राप्ति न हो - ऐसा तीनकाल में भी नहीं हो सकता। यहाँ अभ्यास का अर्थ अकेला शास्त्रों को पढ़ना व सुनना मात्र नहीं है; किन्तु अभ्यास अर्थात् निज शुद्ध चैतन्य में एकाग्रता करने के पुरुषार्थ की बात है। भाई! तू अपनी श्रद्धा में तो ले कि वस्तु ऐसी ही है। श्रद्धा में दूसरा कुछ लेगा तो आत्मा हाथ नहीं आयेगा, पुरुषार्थ अन्दर की ओर नहीं ढलेगा। __ जिसने राग की रुचि छोड़ी और स्वभाव की रुचि की, उसे स्वभाव की प्राप्ति न हो - ऐसा होता ही नहीं है। जो स्वरूप प्राप्त न हुआ हो तो यह समझना चाहिए कि अभी स्वभाव की तरफ के पुरुषार्थ में कुछ कमी है, त्रुटि है। ___ हाँ, परवस्तु के प्रयत्न में – पुरुषार्थ में परवस्तु की प्राप्ति न हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि पर में तो पुरुषार्थ चलता ही नहीं है; परन्तु स्वरूप में पुरुषार्थपूर्वक अनुभव का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती ही है। आत्मा में वीर्य नाम का गुण है, उसका कार्य स्वरूप की ही रचना करना है। इसकारण अंतर्मुख होकर आत्मा में पुरुषार्थ करने पर स्वरूप की रचना निर्मल होती ही है, इसमें किंचित् भी सन्देह नहीं करना। भगवान! तू है कि नहीं? यदि है तो 'है' की प्राप्ति क्यों नहीं होगी? परन्तु भाई! मैं हूँ' ऐसे अपने अस्तित्व को अबतक अनंतकाल में स्वीकार ही नहीं किया; एक समय की पर्याय व राग की स्वीकृति में ही अनंतकाल चला गया है, परन्तु अन्दर आत्मवस्तु चैतन्यघन महाप्रभु जो एक समय
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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