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________________ 297 गाथा ३२-३३. सम्यग्दृष्टि जितेन्द्रिय जिन हैं, उपशणश्रेणीवाले जितमोह जिन हैं और क्षपक श्रेणीवाले क्षीणमोह जिन हैं । वीतरागी सर्वज्ञ भगवान जिनवर हैं, जिनेश्वर हैं । ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितेन्द्रिय जिनरूप प्रथम निश्चयस्तुति चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान के स्वस्थान- अप्रमत्तभाग तक होती है । भाव्य- भावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितमोह जिनरूप दूसरी निश्चयस्तुति उपशमश्रेणीवालों के होती है और भाव्य-भावक भाव के अभावपूर्वक होनेवाली क्षीणमोहजिनरूप तृतीय निश्चयस्तुति क्षपक श्रेणीवालों के होती है। इसप्रकार चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक निश्चयस्तुति होती है । तेरहवाँ गुणस्थान निश्चयस्तुति का फल है । प्रश्न –जितमोह तो ग्यारहवें गुणस्थान का नाम है और क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान का नाम है । अतः जितमोहजिनरूप दूसरी स्तुति ग्यारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये और क्षीणमोहजिनरूप तीसरी स्तुति बारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये । उत्तर - तुम ठीक कहते हो, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि मोह का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और मोह का पूर्ण नाश बारहवें गुणस्थान में होता है; पर मोह की विभिन्न प्रकृतियों का उपशम और क्षय आठवें, नौवें और दशवें गुणस्थान में भी होता जाता है; अतः वहाँ भी यथास्थान जितक्रोधजिन, जितमानजिन, क्षीणक्रोधजिन, क्षीणमानजिन आदि कहा जा सकता है। चूँकि ये सभी प्रकृतियाँ मोहकर्म की ही हैं; अतः उनकी अपेक्षा जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन कहने में भी कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये । दूसरी बात यह भी तो है कि यदि चौथे से सातवें के स्वस्थानअप्रमत्तभाग तक जितेन्द्रियजिनरूप प्रथमस्तुति, ग्यारहवें गुणस्थान में जितमोह जिनरूप द्वितीयस्तुति और बारहवें गुणस्थान में
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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