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________________ 165 गाथा १४ विद्यमान रहता है, एक रूप ही में रहता है, एकाकार रहता है; उस सामान्य, अभेद नित्य एवं एक आत्मा पर ही दृष्टि को केन्द्रित करना, उसे ही ज्ञान का ज्ञेय बनाना शुद्धनय का उदय है; क्योंकि वह शुद्धात्मा ही शुद्धtय का विषय है । यह बताने के लिए ही सर्वपर्यायों में एकाकार शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक अवस्था में जो एक ही रूप में सदा विद्यमान रहता है, वह ज्ञायकभाव ही शुद्धनय का विषय है । अनन्य विशेषण के माध्यम से आचार्यदेव यही कहना चाहते हैं । तात्पर्य यह है कि नर-नारकादि पर्यायें आत्मा में से वस्तुरूप से अलग नहीं हो जाती हैं, वे तो अपने क्रमानुसार होती ही रहती हैं, बदलती ही रहती हैं; कभी मनुष्य पर्याय होती है तो कभी नारकी पर्याय होती है; तथापि क्रमश: प्रवर्त्तमान होनेवाली पर्यायों में जो सदा एकसा रहता है, अक्रमरूप से विद्यमान रहता है, अनेकाकार पर्यायों में जो एकाकाररूप से उपस्थित रहता है; वह ज्ञायकभाव ही शुद्धनय का विषय है । दूसरी बात यह है कि भावार्थ में जो एकस्वभाव और अनेकस्वभाव या अनेकप्रकारता की बात की है; वह द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में जो भाव के भेद के रूप में, गुणभेद और गुणभेद के निषेध के रूप में एक-अनेक की बात आती है, वह नहीं है। यहाँ तो बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से युक्तता अनेकस्वभाव है और इनसे रहितता एकस्वभाव है । इनमें से आत्मा का एकस्वभाव शुद्धनय का विषय है और अनेकस्वभाव अशुद्धनय का विषय है । यह बताया जा रहा है । प्रश्न - शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त इन पाँच भावों से युक्त है, एकस्वभाववाला है; तो क्या आत्मा में विद्यमान बद्धस्पृष्टादिभाव सर्वथा अभूतार्थ हैं, आत्मा का अनेकस्वभाव सर्वथा अभूतार्थ है ? -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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