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________________ समयसार अनुशीलन 462 है। परन्तु यहाँ अपेक्षा भिन्न है। यहाँ तो यह कहते हैं कि पर्याय में जो विकार होता है, वह स्वभाव में नहीं है। अत: पर्याय के विकार और जड़कर्म – दोनों को एक मानकर विकार कर्मप्रकृति के उदयपूर्वक होता है - ऐसा कहा है। प्रकृति जड़/अचेतन है, इसकारण विकार भी अचेतन है - ऐसा कहा है।" प्रश्न -आप व्यवहार को अप्रयोजनभूत कहते हैं, यह तो ठीक नहीं है? उत्तर - अरे भाई! हम कहते हैं कि आचार्यदेव कह रहे हैं। आत्मख्याति में मूल में ही 'अप्रयोजनार्थ' शब्द पड़ा है। प्रश्न - तो क्या वह सर्वथा अप्रयोजनभूत है? उत्तर -कौन कहता है कि सर्वथा अप्रयोजनभूत है। पर यहाँ निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य के निरूपण के प्रकरण में अप्रयोजनभूत है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। यही आशय आचार्य अमृतचन्द्र. का है और इसीप्रकार का स्पष्टीकरण लगभग सभी ने किया है। स्वामीजी ने भी इसीप्रकार का स्पष्टीकरण किया है। प्रश्न -नञ् समास का प्रयोग ईषद् अर्थ में भी तो होता है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में प्रथम अध्याय के १४वें सूत्र की व्याख्या में अनुदराकन्या का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है। अनुदराकन्या का अर्थ होता है बिना पेट की कन्या, पर बिना पेट की कन्या होना संभव नहीं है । जो अर्थ संभव हो, वही करना चाहिए। अतः यहाँ पेट की स्थूलता का अभाव ही अभीष्ट है, पेट का अभाव नहीं। इसीप्रकार यहाँ भी नञ् समास का प्रयोग होने से मूलभूत प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला नहीं है - यह अर्थ भी किया जा सकता है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३७३
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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