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________________ 463 उत्तर –हाँ, किया जा सकता है; क्योंकि मुख्य प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला न होने से ही यहाँ व्यवहार को अप्रयोजनार्थ कहा है। साथ में यह भी कहा है कि वह व्यवहार परप्रसिद्धि का ही कारण है । निमित्त का ज्ञान करानेवाला होने से, संयोग का ज्ञान करानेवाला होने से उसे परप्रसिद्धि का कारण कहा है और असंयोगी आत्मतत्त्व के ज्ञान कराने में असमर्थ होने से अप्रयोजनभूत कहा है। प्रश्न – उन दोनों अर्थों में कौन-सा अर्थ उत्तम है? उत्तर -दोनों ही उत्तम हैं; क्योंकि दोनों में कोई अन्तर ही नहीं है। दोनों अर्थों में आखिर एक ही बात तो स्पष्ट की है कि संयोग का ज्ञान करानेवाला व्यवहार, आत्मा को वर्णादि और रागादिमान कहनेवाला व्यवहार वर्णादि और रागादि से रहित असंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान कराने में अप्रयोजनभूत है, परतत्त्व की प्रसिद्धि करनेवाला व्यवहार निजात्मतत्त्व की प्रसिद्धि, अनुभूति कराने में असमर्थ है; अतः अप्रयोजनार्थ है। इसप्रकार इस गाथा में यह बताया कि वर्णादिभाव जीव नहीं हैं और आगामी गाथा में यह स्पष्ट करेंगे कि रागादिभाव भी जीव नहीं हैं। अथवा इस गाथा में यह बताया कि जीवस्थान जीव नहीं है और आगामी गाथा में यह बतायेंगे कि गुणस्थान भी जीव नहीं हैं। . जैनियों के भगवान विषय-कषाय और उसकी पोषक सामग्री तो देते ही नहीं, वे तो अलौकिक सुख और शान्ति भी नहीं देते; मात्र सच्ची सुख-शान्ति प्राप्त करने का उपाय बता देते हैं। यह भी एक अद्भुत बात है कि जैनियों के भगवान भगवान बनने का उपाय बताते हैं। जगत में ऐसा कोई अन्य दर्शन हो तो बताओ कि जिसमें भगवान अपने अनुयायियों को स्वयं के समान ही भगवान बनने का मार्ग बताते हों। भगवान में लीन हो जाने की बात, उनकी कृपा प्राप्त करने की बात तो सभी करते हैं, पर तुम स्वभाव से तो स्वयं भगवान हो ही और पर्याय में भी भगवान बन सकते हो- यह बात मात्र जैनियों के भगवान ही कहते हैं; साथ में वे भगवान बनने की विधि भी बताते हैं। -आत्मा ही है शरण, पृष्ठ २१७
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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