SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९० समयसार अनुशीलन (दोहा) शुद्धनयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप। नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।। (रोला) शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में। नवतत्त्वों में छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह। अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानों॥८॥ निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते। अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ।।९।। (हरिगीत) परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है। संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है।। जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को। करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।। पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो॥११॥ (रोला) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत्। वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ।। तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित। विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥१२॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy