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________________ समयसार अनुशीलन अधिक क्या कहें, एक त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को देखो, जानो और एक आत्मा में ही रम जावो: समल-अमल के विकल्पों में न उलझो ; - सिद्धि का एक मात्र यही उपाय है। देखो, गंभीरता से विचारने की बात यह हैं कि यहाँ दर्शन, ज्ञान और चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा है, अनेकाकार होने से मेचक कहा जा रहा है । जहाँ शुद्धनय के विषय में दर्शन - ज्ञान - चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा हो, वहाँ रागादिक मलिनता की तो बात ही क्या करें? इस विषय को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं 222 - "यहाँ पर शरीर-मन-वाणी और विकल्पों की तो बात ही नहीं है । यहाँ तो उस शुद्धता की बात है, जिसे छठवीं गाथा में प्रमत्त- अप्रमत्त पर्यायों रहित एक ज्ञायकभावरूप कहा है। उस शुद्ध चैतन्यघन आत्मा को देखना निश्चय, उसे ही तीन रूप परिणमित होते हुए जानना व्यवहार और दोनों को एक साथ जानना प्रमाण है । आत्मा में रहनेवाले अनंतगुण, उन अनंतगुणस्वरूप भगवान आत्मा एकरूप है और उसे दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप तीन परिणाम से देखना व्यवहार है । त्रिकाली एकरूप देखें तो निश्चय व तीनरूप देखें तो व्यवहार है। अभेद से देखें तो अमेचक निर्मल है और भेद से देखें तो मेचक – मलिन है। एकरूप देखें तो एकाकार है और तीनरूप देखें तो अनेकाकार है । आत्मा को गुण-गुणी भेद से देखें तो अनेकाकार है, व्यवहार है, मलिन है, आश्रय करने लायक नहीं है। तीन प्रकार के दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणाम भी आश्रय करने लायक नहीं हैं । १. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८३ २. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८३ आत्मा को जो अमेचक कहा है; वह निर्मलपना, एकपना, शुद्धपना आदि की अपेक्षा कहा है । यहाँ विकल्प रहित निर्मलता की बात की
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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