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कलश २०
देखो, पिछले कलशों में कहा था दर्शन - ज्ञान - चारित्र के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती और यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मानुभव के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती । भाई, एक ही बात है, भेद से कहें तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती ऐसा कहा जायेगा और अभेद से कहें तो एक आत्मा के अनुभव बिना साध्यसिद्धि नहीं होती – ऐसा कहा जायेगा । इन दोनों कथनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, मात्र विविक्षाभेद है; क्योंकि वही आत्मज्योति तीनपने को प्राप्त हुई है और उसी ने एकत्व को नहीं छोड़ा है; पर है तो वह आत्मज्योति ही, आत्मा ही ।
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तात्पर्य यह है कि सुखी होने का एकमात्र उपाय आत्मसाधना ही है ।
यहाँ आचार्यदेव ने उत्तमपुरुष में बात की है कि ऐसे भगवान आत्मा का हम निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि साध्य की सिद्धि का कोई दूसरा उपाय नहीं है । उत्तमपुरुष में बात करके भी आचार्यदेव प्रेरणा दे रहे हैं कि जो व्यक्ति साध्य की सिद्धि चाहते हैं, दुःखों से मुक्ति चाहते हैं, अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति करना चाहते हैं; वे निजभगवान आत्मा का निरन्तर अनुभव करें।
जब कोई सुयोग्य पिता अपने पुत्र से बार-बार कहता है कि जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब प्रात: ५ बजे उठता था और ५ किलोमीटर घूमने जाया करता था; तब उसका आशय अपनी दिनचर्या बताना नहीं होता है, अपनी प्रशंसा करना भी नहीं होता है; अपितु पुत्र को प्रेरणा देना होता है कि यह उम्र प्रातः ९ बजे तक सोते रहने की नहीं है ।
इसीप्रकार यहाँ आचार्यदेव हमें प्रेरणा दे रहे हैं कि यदि तुम सुखशान्ति चाहते हो तो अपने आत्मा को जानों, पहिचानों, उसमें ही जम जावो, रम जावो; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। यह मानव जीवन यों ही विषयों में बर्बाद कर देने के लिए नहीं मिला है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मानुभव की पावन प्रेरणा से परिपूर्ण यह कलश लिखने के बाद जो टीका लिखी है, उसका भाव इसप्रकार है
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