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________________ 473 कलश ४२ लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है; क्योंकि यह लक्षण संसारी जीवों में व्याप्त नहीं रहा। इसप्रकार यह अमूर्तत्व लक्षण जीव का निर्दोष लक्षण नहीं बन सकता है; परन्तु ज्ञानदर्शनमय चैतन्य-उपयोग ही जीव का ऐसा लक्षण है जो संसारी और मुक्त सभी जीवों में पाया जाता है और जीव के अतिरिक्त किसी भी अजीव द्रव्य में नहीं पाया जाता; अत: न इसमें अव्याप्त दोष है और न अतिव्याप्त तथा असंभव दोष तो है ही नहीं। अत: यह लक्षण सर्वथा निर्दोष लक्षण है। ___ अत: यदि हमें निज भगवान आत्मा को जानना है, पहिचानना है, पाना है, अपनाना है; तो इस एक चैतन्य लक्षण का ही अवलम्बन करना होगा। विशेष जानने की बात यह है कि यहाँ वर्णादि में सभी २९ प्रकार के भाव आ जाते हैं । अत: न केवल रूप, रस आदि ही मूर्तिक हैं; अपितु राग-द्वेष आदि विकारी भाव भी मूर्तिक ही हैं। अधिक क्या कहें; क्योंकि २९ भावों में संयमलब्धिस्थान जैसे भाव भी आते हैं, जिन्हें यहाँ पौद्गलिक कहकर मूर्तिक कहा गया है। अत: ये सभी भाव जीव के लक्षण नहीं बन सकते, जीव की पहिचान के चिन्ह नहीं बन सकते। जीव की पहिचान का असली चिन्ह तो उपयोग ही है, ज्ञानदर्शनमय उपयोग ही है। अत: आचार्यदेव आदेश देते हैं, उपदेश देते हैं, आग्रह करते हैं, अनुरोध करते हैं कि हे जगत के जीवो! तुम एक इस चैतन्य लक्षण का ही अवलम्बन लो, आश्रय करो; क्योंकि इस चैतन्य लक्षण से ही भगवान आत्मा की पहिचान होगी। यह चैतन्य लक्षण स्वयं प्रगट है और त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को प्रगट करने में पूर्ण समर्थ है तथा अचल है; इसकारण कभी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहें - यह चैतन्यलक्षण जीव का जीवन ही है। अत: इस लक्षण के आधार पर ही आत्मा की पहिचान
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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