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________________ समयसार अनुशीलन 472 यद्यपि भगवान आत्मा अमूर्तिक महापदार्थ है, तथापि अमूर्तत्व को भगवान आत्मा की पहिचान का चिन्ह नहीं माना जा सकता है, उसे आत्मा का लक्षण नहीं बनाया जा सकता है; क्योंकि लक्षण वह होता है, जिसमें अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभव दोष न हो। जिस लक्षण की उपस्थिति लक्ष्य में संभव ही न हो, उस लक्षण को असंभव दोष से युक्त लक्षण कहते हैं अथवा असंभव दोष से युक्त लक्षणाभास कहते हैं। जो लक्षण पूरे लक्ष्य में व्याप्त न हो, उसे अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं और जो लक्षण अलक्ष्य में भी पाया जाय, उसे अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । सही लक्षण तो वही होता है, जो पूरे लक्ष्य में प्राप्त हो और अलक्ष्य में प्राप्त न हो तथा लक्ष्य में जिसकी उपस्थिति असंभव न हो। उक्त कसौटी के आधार पर अब अमूर्तत्व लक्षण की निर्दोषता पर विचार करते हैं। द्रव्य छह प्रकार के होते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अजीवद्रव्य कहे जाते हैं । इन छहों द्रव्यों में अकेला एक पुद्गल ही मूर्तिक है, शेष पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं । यदि जीव का लक्षण अमूर्तिक माना जाय तो असंभव दोष तो नहीं होगा; क्योंकि जीव अमूर्तिक है; किन्तु अव्याप्त और अतिव्याप्त दोष अवश्य होंगे। यह अमूर्तत्व लक्षण जीव के अलावा आकाश, काल, धर्म और अधर्म - इन चार अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है। अत: अलक्ष्य में चला जाने से यह अतिव्याप्त दोष से दूषित है। __ जीव दो प्रकार के हैं – संसारी और मुक्त। यह अमूर्तत्व लक्षण सिद्धों में तो पाया जाता है; क्योंकि बे किसी भी नय से मूर्तिक नहीं हैं; परन्तु संसारी जीव यद्यपि निश्चय से अमूर्तिक हैं, तथापि व्यवहारनय से जिनागम में उन्हें मूर्तिक भी कहा गया है; अत: यह
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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