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________________ 133 कलश ५ 'निश्चयनय से वस्तु एकरूप है और व्यवहारनय से अनेक रूप है' - इसप्रकार दो नयों के कथनों में जो विरोध भासित होता है; उसमें ही सम्पूर्ण जगत भ्रमित हो रहा है। उक्त भ्रम को दूर करने में स्याद्वादवाणी से सम्पन्न जैनागम पूर्णत: समर्थ है। जिस व्यक्ति के दर्शनमोह के उदय में होने वाला मिथ्यात्वभाव चला गया है; उसके हृदय को उक्त स्याद्वादमयी आगम सहज ही स्वीकृत हो जाता है और वह कुनयों से अखण्डित, अनादि-अनंत, पूर्णपद को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। __उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि स्याद्वाद ही एक ऐसा अमोध उपाय है कि जिसके द्वारा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाला वस्तुस्वरूप सहजभाव से स्पष्ट हो जाता है। चौथे कलश को समाप्त करते हुए एवं पाँचवें कलश की भूमिका स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - ___ "इसप्रकार यह बारह गाथाओं की पीठिका है। अब आचार्यदेव शुद्धनय को प्रधान करके निश्चयसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं। अशुद्धनय (व्यवहारनय) की प्रधानता में जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है, जबकि यहाँ उन जीवादितत्त्वों को शुद्धनय के द्वारा जानने से सम्यक्त्व होता है - यह कहते हैं। टीकाकार इसकी सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं। उनमें से प्रथम श्लोक में यह कहते हैं कि व्यवहारनय को कथंचित् प्रयोजनवान कहा, तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है।" ( मालिनी ) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या मिहनिहितपदानां हंत हस्तावलंबः। तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित्॥५॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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