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________________ समयसार अनुशीलन 134 ( रोला ) ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों । ___ उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में । पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को । जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥५॥ यद्यपि खेद है कि जिन्होंने पहली पदवी में पैर रखा है, उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, हाथ का सहारा है; तथापि जो परद्रव्यों और उनके भावों से रहित, चैतन्यचमत्कारमात्र परम-अर्थ को अन्तर में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं, उसमें लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं; उन्हें यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है। बारहवीं गाथा में परमभाव और अपरमभाव की चर्चा में इस विषय को विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है; अतः यहाँ कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। बस इतना कहना पर्याप्त है कि इस छन्द में 'हस्तावलम्ब' कहकर व्यवहारनय की यथास्थान उपयोगिता भी बता दी है और 'हंत' कहकर इस पराधीनता पर खेद भी व्यक्त कर दिया है। हाथ की लाठी शक्ति की नहीं, अशक्ति (कमजोरी) की सूचक है। प्राथमिक भूमिका में अपनी कमजोरी के कारण व्यवहारनय का सहारा लेना पड़ता है, पर वह हमारे लिए सौभाग्य की बात नहीं है। जिसप्रकार बीमारी से उठे अशक्त व्यक्ति को कमजोरी के कारण चलने-फिरने में लाठी का सहारा लेना पड़ता है, पर उसकी भावना तो यही रहती है कि कब इस लाठी का आश्रय छूटे ? वह यह नहीं चाहता कि मुझे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। उसीप्रकार व्यवहार का सहारा लेते हुए भी कोई आत्मार्थी यह नहीं चाहता कि उसे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। वह तो यही चाहता है कि कब इसका आश्रय छूटे और कब मैं अपने में समा जाऊँ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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