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________________ 135 कलश ६ बस यही भाव उक्त छन्द में व्यक्त किया गया है । अब आगामी कलश में निश्चयसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं - ( शार्दूलविक्रीडित ) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ॥ सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं । तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ ( हरिगीत ) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से । वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक है परद्रव्य से ॥ नव तत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये । इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिये ॥६॥ शुद्धनय से ज्ञान के घनपिण्ड, स्वयं में परिपूर्ण, अपने गुण-पयायों में व्याप्त, एकत्व में नियत, शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा को परद्रव्यों और उनके भावों से पृथक् देखना निश्चय सम्यग्दर्शन है। बस यही आत्मा मैं हूँ अथवा ऐसा ही आत्मा मैं हूँ और इसके दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है। - ऐसा ज्ञानी जानते हैं। इसलिए ज्ञानीजन भावना भाते हैं कि इस नवतत्त्व की परिपाटी को छोड़कर हमें तो एक आत्मा ही प्राप्त हो। तात्पर्य यह है कि हमें तो एक आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन ही इष्ट है; नवतत्त्व की विकल्पात्मक श्रद्धावाले व्यवहार सम्यग्दर्शन से कोई प्रयोजन नहीं । इस कलश में अन्य परद्रव्य और उनके आश्रय से उत्पन्न होनेवाले शुभभावों की बात तो बहुत दूर ही रही; नवतत्त्व संबंधी विकल्पों एवं उनके ज्ञान-श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन के प्रति भी अरुचि प्रदर्शित की गई है और दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा या उसके आश्रय
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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