________________ समयसार गाथा 56-57 "वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो 29 प्रकार के भाव कहे हैं, वे जीव नहीं हैं''- ऐसा आप बार-बार कह रहे हैं; परन्तु सिद्धान्तग्रन्थों में तो इन्हें भी जीव के बताया गया है। तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के पहले सूत्र में औदयिकादि भावों को जीव का स्वतत्त्व कहा है। शिष्य की इस उलझन को मिटाने के लिए आगामी गाथाओं में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें व्यवहार से जीव के कहा है, पर वे निश्चय से जीव के नहीं हैं; क्योंकि उनमें जीव का असाधारण लक्षण उपयोग नहीं पाया जाता। वे गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स॥५६॥ एदेहि य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्यो। ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा॥५७॥ ( हरिगीत ) वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के। परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के // 56 // ध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना। उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं।। 57 // ये वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे हैं, वे व्यवहारनय से तो जीव के हैं; किन्तु निश्चयनय से उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं। यद्यपि इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का दृध और पानी की तरह एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध है; तथापि वे जीव के नहीं हैं;