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________________ समयसार अनुशीलन 430 इस छन्द का पद्यानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार दिया गया (दोहा) वरनादिक रागादि यह रूप हमारौ नाहिं। एक ब्रह्म नहिं दूसरो दीसै अनुभव मांहि // वर्णादि एवं रागादिरूप सभी 29 प्रकार के भाव हमारा स्वरूप नहीं है, ब्रह्मस्वरूप भगवान आत्मा इनसे भिन्न ही है। यही कारण है कि अनुभव में इन सभी भावों से भिन्न एक भगवान आत्मा ही दिखाई देता है। ___ यद्यपि यहाँ वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त सभी 29 प्रकार के भावों को पौद्गलिक कहा गया है; तथापि उन्हें स्पष्टरूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है / एक तो वे, जो स्पष्टरूप से पुद्गल हैं और जिनमें वर्ण, रस, गंध और स्पर्श पाये जाते हैं तथा दूसरे वे औपाधिकभाव, जो पुद्गलकर्म के उदय से आत्मा में उत्पन्न होते हैं। इस ३७वें कलश में उन 29 प्रकार के पौद्गलिकभावों को वर्णादि और रागादि कहकर इसीप्रकार के दो भेदों में विभाजित किया गया है। इसी कलश की छाया छहढाला की निम्नांकित पंक्तियों में झलकती है - जिन परमपैनी सुबुधि छैनी डार अन्तर भेदिया। वर्णादि अरु रागादि से निजभाव को न्यारा किया। यहाँ वर्णादि में परभाव और रागादि में विकारीभाव लिए गये हैं। विकारीभावों को विभावभाव भी कहते हैं / इसप्रकार यहाँ परभाव और विभाव भावों से भिन्न निज भगवान आत्मा की आराधना की बात कही गई है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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