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________________ 429 कलश 37 29 बोलों में पहला बोल वर्ण का है और पाँचवाँ बोल रूप का है। इन दोनों को ध्यान से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। (ख) अध्यात्म' शब्द आत्मज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है / अधि माने जानना और आत्म माने आत्मा को। इसप्रकार आत्मा को जानना अध्यात्म है, अत: आत्मज्ञान ही अध्यात्म है; पर यहाँ स्व और पर में एकत्व के अध्यास को अध्यात्मस्थान कहा गया है और उसे विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्न बताया गया है। यह बात आप १८वें बोल के प्रकरण में देख सकते हैं। इन 29 प्रकार के भावों का विशेष स्वरूप गोम्मटसारादि ग्रन्थों में विस्तार से स्पष्ट किया गया है / अत: इनका स्वरूप विस्तार से जानने के लिए गोम्मटसारादि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। इनका विशेष स्वरूप स्पष्ट करना यहाँ अभीष्ट नहीं; क्योंकि यहाँ तो मात्र इतना बताना ही अभीष्ट है कि ये सभी भाव दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा में नहीं हैं। इन गाथाओं की टीका समाप्त करते हुए उपसंहार के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( शालिनी ) वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् // 37 // . ( दोहा ) वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न / अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य // 37 // वर्णादिक व राग-द्वेष-मोहादिक सभी 29 प्रकार के भाव इस भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं / इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने पर भगवान आत्मा में ये सभी भाव दिखाई नहीं देते; किन्तु इन सबसे भिन्न एवं सर्वोपरि भगवान आत्मा ही एकमात्र दिखाई देता है। 1. छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द आठ का पूर्वार्द्ध
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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