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________________ समयसार अनुशीलन 104 - यह बात यहाँ नहीं ली है । यह तो पहले निश्चयश्रुतकेवली में आ गई। यहाँ तो एक समय की ज्ञान की पर्याय, जिसमें सर्वश्रुतज्ञान यानि बारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान होता है, उसे जिनदेव व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं?' जिस ज्ञान की पर्याय में बारह अंग जाने जाते हैं, द्रव्य-गुण-पर्याय जाने जाते हैं, सभी पर जाना जाता है; वह ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं है, किन्तु आत्मरूप (ज्ञानरूप) है। यह ज्ञान अनात्मरूप ज्ञेयों का नहीं, बल्कि आत्मा का ही है। इससे अन्य पक्ष का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है - यह बात सिद्ध होती है । 'ज्ञान की पर्याय वह आत्मा' - यह व्यवहार है और यह व्यवहार परमार्थ आत्मा को बताता है। इसप्रकार परमार्थ को समझानेवाला व्यवहार है तो अवश्य; परन्तु व्यवहार अनुरसरण करने योग्य नहीं है । एक त्रिकाली ज्ञायकभाव का अनुसरण करना ही परमार्थ है। -- ऐसा जानकर व्यवहार का आश्रय छोड़कर एक परमार्थ का ही अनुभव करो।" उक्त सम्पूर्ण अनुशीलन का निष्कर्ष यह है कि यद्यपि व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है, तथापि वह अनुसरण करने योग्य नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ १२८ २. वही, पृष्ठ १३१ ३. वही, पृष्ठ १३२ सहज ज्ञाता-दृष्टा ___ जो हूँ - मात्र उसे देखें, उसे जानें. उसमें ही रम जावें, जम जावें - यही कहना चाहते हैं आप। नहीं, देखो नहीं, देखना सहज होने दो; जानो नहीं, जानना सहज होने दो; रमो भी नहीं, जमो भी नहीं, रमनाजमना भी सहज होने दो। सब-कुछ सहज, जानना सहज, जमना सहज, रमना सहज। कर्तृत्व के अहंकार से ही नहीं, विकल्प से भी रहित सहज ज्ञाता-दृष्टा बन जाओ। - सत्य की खोज, पृष्ठ २०३
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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