SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार गाथा ११ दसवीं और ग्यारहवीं गाथा के बीच में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका में दो गाथायें उपलब्ध होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में नहीं हैं। उनमें पहली गाथा रत्नत्रय की भावना की गाथा है, जो १६वीं गाथा के समान ही है । जिसप्रकार का भाव इस गाथा में है, ठीक उसीप्रकार का भाव १६वीं गाथा में भी पाया जाता है। दूसरी गाथा में रत्नत्रय की भावना का फल बताया गया है ।। उक्त दोनों गाथाओं पर आचार्य अमृतचन्द्र की टीका तो है ही नहीं, आचार्य जयसेन की टीका में भी विशेष कुछ नहीं है, मात्र गाथा का सामान्य अर्थ कर दिया गया है । वे दोनों गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - णाणम्हि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य । ते पुण तिण्णिवि आदा तह्मा कुण भावणं आदे ॥ जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ ज्ञान में, दर्शन में एवं चारित्र में भावना करना चाहिए; किन्तु ये तीनों आत्मा ही हैं। अत: आत्मा की ही भावना करना चाहिए । जो मुनि तत्परता के साथ इस आत्मभावना को करता है, वह सम्पूर्ण दु:खों से थोड़े ही काल में मुक्त हो जाता है । उक्त दोनों गाथाओं में कोई नई विषयवस्तु तो है ही नहीं, इनके नहीं होने पर भी विषयवस्तु के क्रम में कोई व्यवधान नहीं आता; अपितु इनके बिना ही क्रमिक विकास सही बैठता है, जैसा कि आगामी गाथा की उत्थानिका से स्पष्ट है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy