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________________ 343 गाथा ३८ स्वामीजी नवतत्त्वों से भिन्नता को स्पष्टं करते हुए कहते हैं " भिन्नता के तीन प्रकार हैं - १. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अत्यन्त भिन्न है । २. पुण्य-पाप के विकारी भावों से भगवान आत्मा भिन्न है । ३. निर्मल पर्याय से भी भगवान आत्मा भिन्न है । पहले प्रकार में स्वद्रव्य - परद्रव्य की भिन्नता, दूसरे प्रकार में विकारभाव व स्वभाव की भिन्नता तथा तीसरे प्रकार में द्रव्य व निर्मलपर्याय की भिन्नता बताई है। पुद्गलमय शरीर वगैरह परद्रव्य भगवान आत्मा को नहीं छूते, अन्दर पर्याय में वर्तते हुए विकारीभाव भी भगवान चैतन्यस्वभाव को नहीं छूते; यह तो ठीक, किन्तु भगवान ज्ञायकस्वभावी ध्रुव आत्मा के आश्रय से प्रगट हुई निर्मलपर्याय भी द्रव्य का स्पर्श नहीं करती । " " - उक्त तीनों प्रकारों में अपने आत्मा से भिन्न नवतत्त्व आ जाते हैं । तात्पर्य यह है कि दृष्टि के विषयभूत, ध्यान के ध्येय, परमशुद्धनय के विषयरूप निज आत्मा को जिनसे भिन्न जानना है; नवतत्त्व में वे सभी पदार्थ आ जाते हैं । इसप्रकार एकता में गुणस्थान और मार्गणास्थानों से भिन्नता और शुद्धता में नवतत्त्वों से भिन्नता की बात आ गई । प्रश्न – ७३वीं गाथा में भी भगवान आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए एक, शुद्ध और ज्ञान दर्शनमय विशेषण आये हैं। वहाँ इन शब्दों का अर्थ उसप्रकार नहीं किया, जिसप्रकार यहाँ किया जा रहा है। विभिन्न आचार्य भिन्न-भिन्न अर्थ करें तो कदाचित् ठीक भी मानलें; परन्तु जब एक ही आचार्य एक स्थान पर एक शब्द का कुछ अर्थ करें और दूसरे स्थान पर कुछ; तो चित्त में प्रश्न खड़ा होता ही है । १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४२
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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