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________________ समयसार गाथा ६५-६६ "ये २९ प्रकार के भाव जीव नहीं हैं" - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब आचार्यदेव इस विषय के उपसंहार की ओर बढ़ते हुए कहते हैं - एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ॥६५॥ एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो॥६६ ।। ( हरिगीत ) एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ॥६५॥ इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं' - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी॥६६ ।। एक-इन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पांच-इन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त – ये नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। इन पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों से करणरूप होकर रचित जीवस्थानों को जीव कैसे कहा जा सकता है? ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त गाथाओं की उत्थानिका में ही लिखते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से जब ये चौदह जीवस्थान (जीवसमास) भी जीव का स्वरूप नहीं है तो फिर देहगत वर्णादिक जीव का स्वरूप कैसे हो सकते हैं? . यद्यपि गाथा में अकेले जीवस्थान की बात कही है, तथापि गाथा का तात्पर्य यही है कि नामकर्म के उदय से होनेवाले वर्णादिक सभी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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