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________________ समयसार गाथा ३ दूसरी गाथा में समय की द्विविधता बताई गई थी; पर यह द्विविधता शोभनीय नहीं है, शोभास्पद तो एकत्व ही है। इस बात को तीसरी गाथा में स्पष्ट करते हैं । एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि॥३॥ ( हरिगीत ) एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में। विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ॥३॥ एकत्वनिश्चय को प्राप्त जो समय है, वह लोक में सर्वत्र ही सुन्दर है। इसलिए एकत्व में दूसरे के साथ बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली है। प्रत्येक पदार्थ अपने में ही शोभा पाता है, पर के साथ बंध की कथा, मिलावट की बात विसंवाद पैदा करनेवाली है; अत: यदि विसंवाद से बचना है तो एकत्व को ही अपनाना श्रेयस्कर है । __ आत्मख्याति में इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है - __"यहाँ समय शब्द से सामान्यतः सभी पदार्थ कहे जाते हैं; क्योंकि जो एकीभाव से स्वयं के गुण-पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव; लोक के ये सभी पदार्थ समय शब्द से अभिहित किए जाते हैं और एकत्वनिश्चय को प्राप्त होने से सुन्दरता को पाते हैं । तात्पर्य यह है कि ये सब अकेले ही शोभास्पद होते हैं; क्योंकि अन्यप्रकार से उसमें सर्वसंकरादि दोष आ जावेंगे।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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