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________________ 191 गाथा १५ उक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सम्पूर्ण जिनशासन (जिनागम) का एकमात्र उद्देश्य संसार के दुःखी प्राणियों को संसार दुःख से मुक्त होकर सुखी होने का मार्ग बताना है । वह मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप है और ये सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र शुद्धtय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से प्रगट होते हैं; अत: मूलरूप से शुद्धय के विषयभूत भगवान आत्मा को जानना ही आवश्यक रहा । अतः यह कहना उपयुक्त ही है कि जो अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा को जानता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है । वह जिनशासन द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप है । द्रव्यश्रुत द्वादशांग जिनवाणी को कहते हैं और उसे अथवा उसके प्रतिपाद्य को जाननेवाली श्रुतज्ञानपर्याय को भावश्रुत कहते हैं । 'अपदेशसुत्तमज्झ' का अर्थ आचार्य जयसेन इसप्रकार करते - "जिसके द्वारा पदार्थ कहा जाय, वह अपदेश है; इसप्रकार अपदेश का अर्थ शब्द होता है, जिससे कि यहाँ पर द्रव्यश्रुत को ग्रहण करना और सूत्र शब्द से परिच्छित्तिरूप भावश्रुत जो कि ज्ञानात्मक है, उसे ग्रहण करना; इसप्रकार जो द्रव्यश्रुत के द्वारा वाच्य और भावश्रुत के द्वारा परिच्छेद्य हो, वह अपदेश - सूत्रमध्य कहा जाता है । " " उक्त कथन का सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि शुद्धनय का विषयभूत जो भगवान आत्मा द्रव्यश्रुत के द्वारा कहा गया है और भावश्रुत के द्वारा जाना गया है, उसे ही यहाँ अपदेश - सुत्तमज्झ कहा गया है। इसप्रकार सम्पूर्ण गाथा का अर्थ यह हुआ कि जो पुरुष द्रव्यश्रुत से वाच्य एवं भावश्रुत से ज्ञेय, अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त १. समयसार की आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका का आचार्य ज्ञानसागरजी कृत हिन्दी अनुवाद |
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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