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________________ 100 समयसार अनुशीलन ( वसंततिलका ) "जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्। नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद् वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्स दोषः॥ तीर्थंकर भगवान वास्तव में समस्त लोक को जानते हैं और वे एक निर्दोष, निजसुख में लीन आत्मा को नहीं जानते - कोई मुनिवर व्यवहारमार्ग से ऐसा कहते हैं तो कोई दोष नहीं है।" क्या उक्त कथनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निश्चयकेवली अलग होते हैं और व्यवहारकेवली अलग; तथा निश्चयकेवली मात्र आत्मा को जानते हैं और व्यवहारकेवली मात्र लोकालोक को ? इसीप्रकार क्या यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि जब केवली निश्चय में होते हैं, तब मात्र आत्मा को जानते हैं; और जब व्यवहार में होते हैं, तब मात्र लोकालोक को जानते हैं? नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि केवली दो प्रकार के होते ही नहीं। एक ही केवली का दो प्रकार से निरूपण किया जाता है - एक निश्चयकेवली और दूसरे व्यवहारकेवली। जो केवली जिससमय आत्मा को जानने के कारण निश्चयकेवली कहे जाते हैं, वे ही केवली उसीसमय लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं; न तो उनमें व्यक्तिभेद होता है और न समयभेद। इसीप्रकार निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतकेवली पर घटित कर लेना चाहिए। उक्त संदर्भ में मोक्षमार्गप्रकाशक का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है - १. नियमसार कलश, २८५
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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