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________________ 71 गाथा ६ नहीं है; इसीकारण वह पर से भिन्न अनुभव में आता हुआ शुद्ध कहलाता है । यहाँ पर से भिन्नता को शुद्धि कहा है; अतः पर के साथ किसी भी प्रकार के संबंध को अशुद्धि कहना अनुचित नहीं है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब ज्ञान ज्ञेयाकार परिणमित होता है तो ज्ञेयों के साथ ज्ञायक का ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी हो ही गया । परज्ञेयों के साथ संबंध सिद्ध हो जाने पर ज्ञायक को अशुद्धता का प्रसंग भी उपस्थित होगा ही । ऐसी स्थिति में उसे शुद्ध कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रश्न का उत्तर गाथा के चौथे पद में दिया गया है, जिसका अर्थ आत्मख्याति में यह किया गया है कि 'जिसप्रकार दाह्य ( ईंधन ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उसके ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।' जिस आकार का कोयला, लकड़ी, कंडा (उपला- छाणा) आदि ईंधन होता है, उसे जलानेवाली अग्नि भी उसी आकार को धारण कर लेती है; फिर भी ईंधन में रहनेवाली अशुद्धि अग्नि में नहीं आती । इसीप्रकार ज्ञेयों को जानने के कारण ही आत्मा को ज्ञायक नाम दिया गया है, तथापि परज्ञेयों से आत्मा का कोई संबंध नहीं है; अत: उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता भी नहीं होती । ज्ञेय तो ज्ञान की पर्याय में सहजभाव से ही झलकते हैं। न तो ज्ञेयों को जानने के लिए ज्ञान ज्ञेयों के पास जाता है और न ज्ञेय ही ज्ञान के पास आते हैं; ज्ञान ज्ञान में रहता है और ज्ञेय ज्ञेयों में रहते हैं । दोनों पूर्णत: स्वाधीन हैं, कोई किसी के आधीन नहीं है, दोनों का सहज ही ऐसा स्वभाव है और दोनों अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं ही सहजभाव से प्रवर्तते हैं; अत: दोनों में निश्चय से कोई संबंध नहीं है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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