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समयसार अनुशीलन
दूसरी बात यह है कि ज्ञान में जो ज्ञेयों के आकार भासित होते हैं; वे सभी आकार मूलतः तो ज्ञान के ही हैं; क्योंकि ज्ञान ही स्वयं उन आकारोंरूप परिणमित हुआ है, ज्ञेयों के आकार तो ज्ञेयों में ही रहे हैं, वे ज्ञान में आये ही नहीं हैं; उनके निमित्त से ज्ञान में ही ये आकार निर्मित हुए हैं। अतः वे आकार ज्ञान के ही हैं, ज्ञेयों के नहीं; ज्ञेय तो उनमें मात्र निमित्त हैं । ज्ञान तो ज्ञानाकार ही रहा, ज्ञेयाकार हुआ ही नहीं; अतः उसे अशुद्ध कैसे कहा जा सकता है ?
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के स्पष्टीकरण का भाव इसप्रकार है
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" ज्ञेयों का ज्ञान ज्ञान की अवस्था है, ज्ञेयों की नहीं । साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा हमारे ज्ञान के ज्ञेय बनें, उन्हें जाननेरूप हमारा ज्ञान परिणमित हो; तब भी जो ज्ञान होगा, वह स्वयं से ही होगा, पर के कारण नहीं, तीर्थंकरदेव के कारण नहीं ।
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भगवान को जानते समय भी भगवान नहीं, तत्संबंधी ज्ञान ही जानने में आता है । पर को जानते समय भी, ज्ञान का परिणमन ज्ञान (स्व) के कारण होता है, ज्ञेय (पर) के कारण नहीं । 'ज्ञेय हैं इसकारण ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाकार होता है । यह बात भी नहीं है । ज्ञेय को जानरूप ज्ञान की योग्यता के कारण ही ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाकार होता है । इसकारण ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं होती । "
स्वामीजी के स्पष्टीकरण में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि ज्ञान के ज्ञेयाकार परिणमन में ज्ञेय कारण बने तो ही ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता आ सकती है; किन्तु ज्ञान का परिणमन तो स्वयं अपनी योग्यता से स्वतंत्र ही होता है; अतः ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं हो सकती । वस्तुत: बात तो यह है कि ज्ञान में ज्ञेयों के जो आकार भासित होते हैं, वे आकार ज्ञान की ही पर्यायें हैं, ज्ञेयों की नहीं; अतः यह स्पष्ट १. प्रवचनरत्नाकर (गुजराती), भाग १, पृष्ठ ९८
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