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गाथा ६
है कि ज्ञान ज्ञानाकार ही रहा। - ऐसी स्थिति में उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता किसप्रकार हो सकती है?
प्रश्न –यदि यह बात है तो फिर उसे ज्ञेयाकार क्यों कहा जाता
उत्तर – यह बताने के लिए कि अमुक ज्ञानपर्याय के ज्ञेय अमुक पदार्थ ही बने हैं। पर्वत को जाननेवाले ज्ञान को पर्वताकार इसलिए कहा जाता है कि जिससे यह पता चल सके कि इस ज्ञान का ज्ञेय पर्वत ही बना है, अन्य पदार्थ नहीं। बस, इसीकारण ज्ञानाकारों को ज्ञेयाकार कहा जाता है और यह कथन मात्र उपचार ही है, जो प्रयोजन विशेष से किया गया है।
प्रश्न -आप कुछ भी कहें, पर भगवान आत्मा का ज्ञायक नाम तो ज्ञेयों को जानने के कारण ही पड़ा है न?
उत्तर –हाँ, यह बात तो सही है; पर ज्ञायकभाव स्वयं भी तो एक ज्ञेय है। अत: एकान्त से यह कैसे कहा जा सकता है कि परज्ञेयों के जानने के कारण ही आत्मा का नाम ज्ञायक पड़ा है; स्वज्ञेय को जानने के कारण भी तो उसे ज्ञायक ही कहा जायेगा। इस बात को आचार्यदेव ने दीपक का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है।
जिसप्रकार दीपक घट-पटादि को प्रकाशित करता है, उसीप्रकार वह स्वयं को भी प्रकाशित करता है; क्योंकि दीपक को प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं होती। मात्र पर को प्रकाशित करने के कारण ही उसे दीपक नहीं कहा जाता, अपितु स्वयं को प्रकाशित करने के कारण भी वह दीपक ही है। ठीक इसीप्रकार यह ज्ञायकभाव मात्र दूसरों को जानने के कारण ही ज्ञायक नहीं है, अपितु स्वयं को जानने के कारण भी ज्ञायक ही है।
निश्चय से कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न नहीं होते, अभिन्न ही होते हैं। यहाँ ज्ञाता भी ज्ञायक है और ज्ञेय भी ज्ञायक ही है। यदि ज्ञानक्रिया