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कलश ११. १२
हो जावो, जम जावो, रम जावो, समा जावो, उसका ही ध्यान करो, उसे ही ध्यान का ध्येय बनाओ। एकमात्र करने योग्य कार्य तो यही है, सच्चा धर्म भी यही है, मुक्ति का मार्ग भी यही है, परमसुखी होने का उपाय भी यही है।
इस कलश के भावानुवाद में कविवर बनारसीदासजी भी अत्यन्त सशक्त शब्दों में आत्मानुभव करने की प्रेरणा देते हैं; जो इसप्रकार है
( कवित्त ) सदगुरु कहै भव्यजीवनि सौं, तोरहु तुरित मोह की जेल। समकितरूप गहौ अपनौ गुन, करहु सुद्ध अनुभव को खेल। पुदगलपिंड भाव रागादिक, इनसौं नाहिं तुम्हारौ मेल। ए जड़ प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसे भिन्न तोय अरु तेल॥
सद्गुरु भव्य जीवों से कहते हैं कि इस मोह (मिथ्यात्व) की जेल को तत्काल तोड़ दो, वस्तु के सम्यक्स्वरूप को ग्रहण करो, सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो; क्योंकि वह अपने ही श्रद्धागुण का निर्मल परिणमन है और शुद्धात्मा के अनुभव को प्राप्त कर उसके साथ खेलो। पुद्गलादि अजीव द्रव्य और इन रागादि भावों से तुम्हारा कोई मेल (संबंध) नहीं है; क्योंकि ये प्रकटरूप से जड़ है और तुम अन्तर में गुप्त चेतन तत्त्व हो। ये और तुम उसीप्रकार भिन्न-भिन्न हो कि जिसप्रकार पानी और तेल भिन्न-भिन्न हैं, भिन्न-भिन्न रहते हैं।
अब आगे बारहवें कलश में कहते हैं कि यह शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा स्वयं ही देवाधिदेव है । कलश मूलत: इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीड़ित ) भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीयद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलंकपंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥