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________________ 372 समयसार अनुशीलन समयसार की इन ३९ से ४३ तक की गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - ___ "इस लोक में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंसकता से, पुरुषार्थहीनता से अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्विक आत्मा को न जाननेवाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से पर को ही आत्मा कहते हैं, बकते हैं। उनमें कुछ मुख्य इसप्रकार हैं - (१) कोई तो ऐसा कहते हैं कि नैसर्गिक (स्वयं से ही उत्पन्न हुए - स्वाभाविक) राग-द्वेष द्वारा मलिन अध्यवसान (मिथ्या-अभिप्राय सहित विभाव परिणाम) ही जीव है; क्योंकि जिसप्रकार कालेपन से भिन्न कोई कोयला दिखाई नहीं देता, उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता। (२) कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है – ऐसी एक संसरण (भ्रमण) रूप जो क्रिया है, उस रूप से क्रीड़ा करता हुआ कर्म ही जीव है; क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता। ___ (३) कोई कहते हैं कि तीव्र-मंद अनुभव से भेदरूप होते हुए, दुरन्त (जिसका अन्त दूर है - ऐसे) रागरूप रस से भरे हुए अध्यवसानों की संतति ही जीव है; क्योंकि उससे भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता। (४) कोई कहता है कि नई एवं पुरानी अवस्था आदि भाव से प्रवर्तमान नोकर्म (शरीर) ही जीव है; क्योंकि शरीर से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। (५) कोई कहते हैं कि समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्म का विपाक ही जीव है; क्योंकि शुभाशुभ भाव से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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