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________________ समयसार अनुशीलन " जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान वस्तु के उत्कृष्टभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट- मध्यम भावों का अनुभव नहीं होता। इसलिए उन्हें तो शुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं अचलित - अखण्ड एकस्वभावरूप भाव का प्रकाशक शुद्धनय ही सबसे ऊपर की एक प्रतिवर्णिका समान होने से जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है; परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट- मध्यमभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्टभाव का अनुभव नहीं होता है। इसलिए उन्हें अशुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भावों का प्रकाशक व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमालाओं के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है; क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल की ऐसी ही व्यवस्था है । कहा भी है जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जन तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥ ―― 118 यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों में से एक को भी मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तीर्थ का एवं निश्चयनय के बिना तत्त्व का नाश हो जावेगा । " उक्त सन्दर्भ में परमभावप्रकाशक नयचक्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है "इसमें कहा गया है कि व्यवहार के बिना तीर्थ का लोप हो जावेगा और निश्चय के बिना तत्व का लोप हो जावेगा अर्थात् तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी। यहाँ 'तीर्थ' का अर्थ उपदेश और 'तत्त्व' का अर्थ शुद्धात्मा
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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