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________________ 119 गाथा १२ का अनुभव है। उपदेश की प्रक्रिया प्रतिपादन द्वारा सम्पन्न होती है, तथा प्रतिपादन करना व्यवहार का काम है; अत: व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानने से तीर्थ का लोप हो जावेगा - ऐसा कहा है। शुद्धात्मा का अनुभव निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में एकाग्र होने पर होता है; अतः निश्चयनय को छोड़ने पर तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं होगा - ऐसा कहा है। द्वादशांग जिनवाणी में व्यवहार द्वारा जो भी उपदेश दिया गया है, उसका सार एकमात्र आत्मा का अनुभव ही है। आत्मानुभूति ही समस्त जिनशासन का सार है। इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि उपदेश की प्रक्रिया में व्यवहारनय प्रधान है और अनुभव की प्रक्रिया में निश्चयनय प्रधान है। आत्मा के अनुभव में व्यवहारनय स्वत: गौण हो गया है। इसलिए आत्मानुभव के अभिलाषी आत्मार्थी निश्चयनय के समान ही व्यवहार को उपादेय कैसे मान सकते हैं ? व्यवहार की जो उपादेयता है, वे उसे भी अच्छी तरह जानते हैं। ज्ञानीजन जब व्यवहारनय को हेय या असत्यार्थ कहते हैं तो उसे गौण करके ही असत्यार्थ कहते हैं, अभाव करके नहीं - यह बात ध्यान में रखने योग्य है। गाथा की प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि यदि तुम जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार-निश्चय को मत छोड़ो। प्रवर्ताना' शब्द के दो भाव होते हैं। एक तो तीर्थ-प्रवर्तन और दूसरा आत्मानुभव। 'तीर्थप्रवर्तन' का अर्थ जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है । अत: यदि जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है तो वह व्यवहार द्वारा ही संभव होगा, अनिर्वचनीय या 'न तथा' शब्द द्वारा वक्तव्य निश्चयनय से नहीं; किन्तु जिनमत का वास्तविक प्रवर्तन तो आत्मानुभवन ही है; अत: आत्मानुभूतिरूप जिनमत का प्रवर्तन तो निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में मग्न होने पर
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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