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________________ 301 गाथा ३२-३३ जिज्ञासु पाठकों को उक्त प्रकरण का गहराई से अध्ययन करना चाहिए । लेखक की अन्य कृति " तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ' में भी देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप पर विचार करते हुए आधुनिक भक्ति में समागत विकृतियों पर प्रकाश डाला गया हैं । जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसका अध्ययन भी उपयोगी है । - जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है " "जो मुनि फल देने की सामर्थ्य से उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होते हुए मोहकर्म के अनुसार प्रवृत्तिवाले भाव्यरूप अपने आत्मा को भेदज्ञान के बल से दूर से ही अलग करके - इसप्रकार मोह का बलपूर्वक तिरस्कार करके, समस्त भाव्य- भावकसंकर दोष दूर करके एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतः सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्यद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितमोहजिन हैं । यह दूसरी निश्चयस्तुति है । — - पूर्वोक्तविधान से आत्मा में से मोह का तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यों से भिन्न आत्मा का अनुभव करने से जो आत्मा जितमोह हुआ है; जब वही आत्मा अपने स्वभाव की भावना का भलीभाँति अवलम्बन करके मोह की संतति का ऐसा आत्यन्तिक विनाश करता है कि फिर उसका उदय ही न हो, इसप्रकार भावकरूप मोह पूर्णतः क्षीण हो; तब भाव्य-भावक भाव का अभाव होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण परमात्मा को प्राप्त हुआ। वह आत्मा क्षीणमोहजिन कहलाता है । यह तीसरी निश्चयस्तुति है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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