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समयसार अनुशीलन
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गाथाओं में जहाँ 'मोह' पद का प्रयोग हुआ है, उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, शब्दों को रखकर ग्यारह-ग्यारह गाथायें बनाकर; उनका भी इसीप्रकार व्याख्यान करना तथा कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - इन पाँच इन्द्रियों को भी 'मोह' पद के स्थान पर रखकर इन्द्रियसूत्र के रूप में पाँच-पाँच गाथायें पृथक् से बनाना और उनका भी पूर्ववत् व्याख्यान करना।
इसप्रकार इन गाथाओं के अनुसार १६-१६ गाथायें बनाकर विस्तार से व्याख्यान करना। इसीप्रकार इन १६-१६ सूत्रों के अलावा भी विचार कर लेना।"
यहाँ आचार्यदेव ३२वीं और ३३वीं गाथा के आधार १६-१६ गाथायें बनाकर उनकी व्याख्या भी इसीप्रकार करने का आदेश दे रहे हैं, जिससे हमें जितमोहंजिन के समान जितरागजिन, जितद्वेषजिन, जितक्रोधजिन, जिनमानजिन आदि का तथा क्षीणमोहजिन के समान क्षीणरागजिन, क्षीणद्वेषजिन, क्षीणक्रोधजिन, क्षीणमानजिन आदि का स्वरूप भी ख्याल में आयेगा। ___ नमूने के रूप में गाथाओं में परिवर्तन इसप्रकार किया जा सकता
है -
( हरिगीत ) राग को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितरागजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ द्वेष को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितद्वेष जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।। क्रोध को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितक्रोधजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ मान को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितमानजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।।