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________________ 96 समयसार अनुशीलन 'ज्ञानी के ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है' - सातवीं गाथा में समागत उक्त कथन गुणभेदरूप होने से व्यवहारकथन माना गया है। दर्शनज्ञान-चारित्र को गुणरूप में भी देखा जा सकता है और निर्मलपर्याय के रूप में भी देखा जा सकता है; क्योंकि उक्त तीन गुण तो आत्मा में हैं ही, पर इनके निर्मल परिणमन को भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही कहते हैं । मुक्ति के मार्ग के रूप में सर्वत्र इन गुणों के निर्मल परिणमन को ही लिया गया है। गुणों और उनके निर्मल परिणमन को आत्मा का कहना अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का ही कथन है । अत: सातवीं गाथा के कथन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र को गुणरूप में ग्रहण करें, चाहे उनके निर्मल परिणमनरूप में ग्रहण करें; दोनों गुणभेदरूप होने से अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय के विषय ही बनेंगे। ___ 'जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं, वे निश्चयश्रुतकेवली हैं और जो उसी श्रुतज्ञान से द्वादशांगरूप सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं ' - नौवीं-दशवीं गाथा में कहे गये उक्त शब्दों से भी यही फलित होता है कि जिसने श्रुतज्ञान से आत्मा (गुणीपर्यायवान) को जाना, वह निश्चयश्रुतकेवली और जिसने द्वादशांगरूप सर्वश्रुतज्ञान (गुण-पर्याय) को जाना, वह व्यवहार श्रुतकेवली है। ___ आत्मा द्रव्य है और सर्वश्रुतज्ञान उसी आत्मद्रव्य की पर्याय है; अतः सर्वश्रुतज्ञान भी प्रकारान्तर से आत्मा ही है। अत: सर्वश्रुतज्ञान को जाननेवाले व्यवहारनय ने भी प्रकारान्तर से आत्मा को ही बताया है। अत: वह व्यवहार भी परमार्थ का ही प्रतिपादक रहा। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने इन गाथाओं की आत्मख्याति टीका में निष्कर्ष के रूप में यह कहा है कि ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाले व्यवहारनय ने भी परमार्थ ही बताया है और परमार्थप्रतिपादक के रूप में उसने अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर लिया है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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