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समयसार अनुशीलन
यदि मैं भगवान आत्मा को दिखा दूँ, अपने व्यवसाय में सफल हो जाऊँ तो तुम स्वयं के अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि कहीं स्खलित हो जाऊँ तो तुम्हें छल ग्रहण करने में जागृत नहीं रहना चाहिए।"
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यहाँ जो चूक जाने की बात कही है, वह भगवान आत्मा के स्वरूप में चूकने की बात नहीं है; यह तो प्रतिपादन में भाषा में शब्दों के प्रयोग आदि में चूकने की बात है । तत्त्वार्थसूत्र के अन्त में भी एक छन्द आता है, जिसमें इसीप्रकार की चर्चा की गई है । वह छन्द इसप्रकार है
अक्षरमात्रपदस्वरहीनं
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व्यंजनसंधिविवर्जितरेकं । साधुभिस्तत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥
अक्षर, मात्रा, पद, स्वर, व्यंजन, सन्धि, रेफ आदि के सन्दर्भ में ही भूल की सम्भावना उक्त छन्द में व्यक्त की है और उसी के लिए क्षमा याचना भी की है; क्योंकि शास्त्र तो समुद्र के समान अपार है, उनमें तो बड़ों-बड़ों से भी भूल हो सकती है ।
छहढाला में भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया गया है
लघु धी तथा प्रमाद तैं शब्द अर्थ की भूल |
सुधी सुधार पढ़ो सदा जो पावो भवकूल ॥
भाव
उक्त छन्द में भी शब्द और अर्थ की भूल स्वीकार की गई है, की नहीं; क्योंकि ज्ञानी धर्मात्माओं से भाव में तो भूल हो ही नहीं सकती है।
भाव के प्रति पूर्णतः आश्वस्त होने पर भी आचार्यदेव, ज्ञानी धर्मात्माजन, शब्दादि के सन्दर्भ में हुई भूल को स्वीकार करने में संकोच नहीं करते, क्षमा याचना करने में भी संकोच नहीं करते; यह उनकी महानता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भूल होगी ही; यहाँ तो मात्र सम्भावना के आधार पर क्षमा याचना की गई है। इसमें से ऐसा