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________________ 57 गाथा ५ अर्थ निकालना कि इसमें अवश्य कोई गलती होगी, क्योंकि आचार्यदेव स्वयं स्वीकार कर रहे हैं – यह हमारी बुद्धि का अजीर्ण ही होगा। यदि चूक जाऊँ तो इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि बात मात्र संभावना की है। चूक होगी ही - ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। कुछ लोग ऐसी बातें भी करते हैं कि देखो ! आचार्यदेव हमसे क्षमा याचना कर रहे हैं । अरे भाई ! आचार्यदेव हमसे क्षमायाचना करें – यह हमारा सौभाग्य नहीं, दुर्भाग्य है । अरे आचार्यदेव तो तुम्हें सावधान कर रहे हैं कि जिससे तुमसे समझने में कोई भूल न हो जावे। आजकल कुछ लोग आचार्यों की भूल निकालने में ही सावधान हैं और अपने को बड़ा विद्वान मान रहे हैं। यहाँ तो आचार्यदेव हल्की-सी डाट पिला रहे हैं कि कहीं कोई अक्षर मात्रा आदि में चूक हो जावे तो छल ग्रहण नहीं करना, भाव को समझने का प्रयास करना। अरे, भाई ! साफ-साफ ही तो लिखा है कि छल ग्रहण करने में जागृत नहीं रहना। इसी प्रकरण में आचार्य जयसेन तो यहाँ तक लिखते हैं कि दुर्जनों के समान छल ग्रहण न करना। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का अभिप्राय भी द्रष्टव्य है - "अनुभव में तो चूक नहीं है, परन्तु भाषा में, छन्द में या व्याकरण में कहीं कुछ कम-बढ़ आ जाय तो छल ग्रहण कर अर्थ का अनर्थ मत कर बैठना। हम जो कहना चाहते हैं, उस भाव को ध्यान में रखकर सही अर्थ, भाव ग्रहण करना; शब्दों को नहीं पकड़ना। वस्तु के निर्णय करने में अनुभव प्रधान है, उससे भगवान पूर्णानन्द का नाथ स्वसंवेदन में आता है। इस रीति से तू प्रमाण करना।" १. यदि च्युतो भवामि तर्हि छलं न ग्राह्यं दुर्जनवदिति । २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ ७९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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