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________________ 55 गाथा ५ प्रमाणित किया गया है और उस भगवान आत्मा का साक्षात् अनुभव भी किया गया है; तब जाकर उसका प्रतिपादन किया गया है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द का ज्ञानवैभव जिनागम का अभ्यास कर, सद्गुरुओं के मुख से उसका मर्म सुनकर, तर्क की कसौटी पर कसकर और अनुभव करके उत्पन्न हुआ है । इसी ज्ञानवैभव को आधार बनाकर वे यह समयसार ग्रन्थ लिख रहे हैं। यद्यपि उन्हें सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन करने और उनकी दिव्यध्वनि श्रवण करने का अवसर भी प्राप्त हुआ था; तथापि अमृतचन्द्र ने उसका उल्लेख न कर भगवान महावीर की आचार्य परम्परा का उल्लेख करना ही उचित समझा। आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की टीका लिखते समय अधिकतम विस्तार 'निजवैभव' शब्द की व्याख्या में ही दिया है। उनके द्वारा लिखित इस गाथा की टीका का मूल भाव इसप्रकार है - "मेरे निजवैभव का जन्म लोक की समस्त वस्तुओं के प्रकाशक 'स्यात्' पद की मुद्रावाले शब्दब्रह्म (परमागम) की उपासना से हुआ है; समस्त विपक्षी अन्यवादियों द्वारा गृहीत एकान्तपक्ष के निराकरण में समर्थ अतिनिष्तुष निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से हुआ है। निर्मल विज्ञानघन आत्मा में अन्तर्मग्न परमगुरु सर्वज्ञदेव, अपरगुरु गणधरादिक से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त समस्त आचार्य परम्परा से प्रसाद के रूप में प्राप्त शुद्धात्मतत्त्व के उपदेशरूप अनुगृह से एवं निरन्तर झरते हुए, स्वाद में आते हुए सुन्दर आनन्द की मुद्रा से युक्त स्वसंवेदन से मेरे वैभव का जन्म हुआ है। ___ इसप्रकार शब्दब्रह्म की उपासना से, निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से, गणधरादि आचार्य परम्परा के उपदेश से एवं आत्मानुभव से जन्मे अपने सम्पूर्ण ज्ञानवैभव से मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को दिखाने के लिए कटिबद्ध हूँ, कृतसंकल्प हूँ; इस व्यवसाय में मैं बद्ध हूँ, सन्नद्ध हूँ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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