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समयसार अनुशीलन
अगली गाथा में आचार्यदेव ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों के भेद को भी व्यवहारोत्पादक होने से अशुद्धि बताकर निषेध करनेवाले हैं; क्योंकि अनुभव के काल में गुणभेद भी नजर नहीं आता। अनुभव के काल में ज्ञायकभाव जैसा नजर आता है, परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत वही ज्ञायकभाव शुद्ध कहलाता है - यह स्पष्ट करना भी उक्त कथन का मूल प्रयोजन है।
इसप्रकार इन छठवीं-सातवीं गाथाओं में दृष्टि का विषय पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है । यही कारण है कि इन गाथाओं को समयसार का भी सार कहा जाता है। क्योंकि इनमें सम्पूर्ण समयसार का सार आ जाता है। .
सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार दो अलग-अलग चीजें हैं। सत्य की प्राप्ति के लिए समस्त जगत से कटकर रहना आवश्यक है। इसके विपरीत सत्य के प्रचार के लिए जन-सम्पर्क जरूरी है। सत्य की प्राप्ति व्यक्तिगत क्रिया है और सत्य का प्रचार सामाजिक प्रक्रिया। सत्य की प्राप्ति के लिए अपने में सिमटना जरूरी है और सत्य के प्रचार के लिए जन-जन तक पहुँचना। ___ साधक की भूमिका और व्यक्तित्व द्वैध होते हैं। जहाँ एक ओर वे आत्म-तत्त्व की प्राप्ति और तल्लीनता के लिए अन्तरोन्मुखी वृत्ति वाले होते हैं, वहीं प्राप्त सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के विकल्प से भी वे अलिप्त नहीं रह पाते हैं।
उनके व्यक्तित्व की यह द्विविधता जन सामान्य की समझ में सहज नहीं आ पाती। यही कारण है कि कभी-कभी वे उनके प्रति शंकाशील हो उठते हैं।
यद्यपि उनकी इस शंका का सही समाधान तो तभी होगा, जबकि वे स्वयं उक्त स्थिति को प्राप्त होंगे; तथापि साधक का जीवन इतना सात्विक होता है कि जगत-जन की वह शंका अविश्वास का स्थान नहीं ले पाती।
- सत्य की खोज, पृष्ठ १४२