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गाथा ६
उत्तर -यह भगवान आत्मा स्वयं ज्ञेय भी है और ज्ञायक भी हैं । तात्पर्य यह है कि यह जानने में भी आता है और जानता भी है । जानने में आने के कारण इसे ज्ञेय कहते हैं और जाननेवाला होने से ज्ञायक कहते हैं । ज्ञेय तो सभी पदार्थ हैं। आत्मा भी ज्ञेय हैं और आत्मा से भिन्न अन्य पदार्थ भी ज्ञेय हैं; पर जीवद्रव्य को छोड़कर शेष सभी द्रव्य कुछ नहीं जानते हैं । इसतरह जानना यह आत्मा का विशेष गुण है, जो अन्य अजीवद्रव्यों में नहीं पाया जाता है; यही कारण है कि यह गुण आत्मा को पर से विभक्त करता है, विभक्त करने का हेतु बनता है ।
यह ज्ञायकभाव आत्मा का ऐसा विशेष गुण है कि जानने का काम तो करता ही है, आत्मा की पहिचान का चिन्ह भी बनता है । अनुभूति में भी जो भगवान आत्मा ज्ञान का ज्ञेय बनता है, उसमें भी आत्मा के ज्ञायकभाव की ही मुख्यता होती है, ज्ञेयभाव की नहीं । अतः यह कहना उचित ही नहीं, आवश्यक भी है कि अनुभूति में भगवान आत्मा ज्ञायकरूप से ज्ञात होता है ।
यद्यपि 'ज्ञायकभाव' इस शब्द का वाच्य भगवान आत्मा अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड है, ज्ञायकभाव में अनन्तगुण व्याप्त हैं, अनुभव में भी अखण्ड अभेद आत्मा ही आता है; तथापि ज्ञायकता उसकी विशेष पहिचान है; अतः यह कहा जाता है कि अनुभूति में भगवान आत्मा ज्ञायकरूप से ज्ञात होता है
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गहराई से जानने की बात यह है कि इस गाथा में व्यवहारोत्पादक होने से भगवान आत्मा के पर के साथ होनेवाले सर्व संबंधों का निषेध किया गया है । यहाँ तक कि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को भी अशुद्धि कहा गया है । यही कारण है कि ज्ञायकभाव को उपासित होता हुआ, अनुभव
आता हुआ शुद्ध कहा गया है; क्योंकि अनुभव के काल में आत्मा का पर के साथ ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी छूट जाता है; वहाँ तो एक शुद्ध ज्ञायकभाव ही अनुभव में आता है । आत्मा ही ज्ञेय और आत्मा ही इसप्रकार ज्ञेय - ज्ञायक भी अभेद ही हो जाते हैं ।
ज्ञायक
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