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________________ 307 कलश २७ २८ ( कवित्त ) तन चेतन विवहार एक से, निहचै भिन्न-भिन्न हैं दोड़ | तनकी थुति विवहार जीवधुति, नियतदृष्टि मिथ्याधुति सोइ ॥ जिन सो जीव जीव सो जिनवर तन जिन एक न मानै कोइ । ता कारण तन की संस्तुति सौं जिनवर की संस्तुति नहिं होइ ॥ व्यवहारनय से जड़ शरीर और चेतन आत्मा एक ही हैं; परन्तु निश्चयनय से दोनों भिन्न-भिन्न ही हैं । इसलिए शरीर के आधार पर की गई स्तुति व्यवहार स्तुति है; निश्चयनय की दृष्टि से वह स्तुति मिथ्यास्तुति है। जिनदेव जीव हैं और जीव ही जिनदेव हैं। शरीर और जिनदेव को कोई भी एक नहीं मानता है । इसकारण जिनदेव के शरीर के गुणों के आधार पर की गई स्तुति जिनदेव की स्तुति नहीं हो सकती है । इस कलश में सम्पूर्ण प्रकरण के निष्कर्ष को अत्यन्त सीधी और सपाट भाषा में प्रस्तुत कर दिया गया है कि निश्चय से आत्मा और शरीर किसी भी रूप में एक नहीं हैं; भिन्न-भिन्न ही हैं । अतः इस कलश के सन्दर्भ में कुछ भी कहना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । ( मालिनी ) इति परिचिततत्वैरात्मकायैकतायां । नयविभजनयुक्त्याऽत्यन्तमुच्छादितायाम् ॥ अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य । स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ॥ २८ ॥ ( हरिगीत ) इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से । निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ॥ यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्द्बोध हो । भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्द्बोध हो ॥ २८ ॥ जब तत्त्व से परिचित मुनिराजों ने आत्मा और शरीर के एकत्व को इसप्रकार नयविभाग की युक्ति द्वारा जड़मूल से उखाड़ फेंका है; तब
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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