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________________ समयसार अनुशीलन निंजरस के वेग से आकृष्ट हुए प्रस्फुटित किस पुरुष को वह ज्ञान तत्काल ही यथार्थपने को प्राप्त न होगा ? 308 इस कलश के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि जब सर्वज्ञदेव नं. तत्त्वमर्मज्ञ आचार्यों ने ज्ञानी धर्मात्माजनों ने नयविभाग के द्वारा शरीर और आत्मा के एकत्व को जड़मूल से ही उखाड़ फेंका है, पूरीतरह निरस्त कर दिया है तो फिर ऐसा कौन व्यक्ति है कि जिसकी समझ में देह भिन्न है और आत्मा भिन्न है, यह बात नहीं आवे । तात्पर्य यह है कि जिसे निजरस का रस है, जो निजरस के वेग से आकृष्ट है, प्रस्फुटित है, स्फुरायमान है, उत्साहित है; उसे तो यह बात अवश्य ही समझ में आ जावेगी । यह कहकर आचार्यदेव ने आत्मरसिकों पर अटूट आस्था व्यक्त की है, साथ ही यह भी कह दिया है कि जिसकी समझ में अब भी न आवे तो समझना चाहिए कि वह आत्मरसिक ही नहीं है, आत्मरस उसे आकर्षित ही नहीं करता है, आत्मा की प्राप्ति के लिए उसका वीर्य उल्लसित ही नहीं होता है, स्फुरायमान ही नहीं होता है । यह कहकर आचार्यदेव इस प्रकरण को यही समाप्त करना चाहते हैं; क्योंकि इस कलश के बाद ही आचार्य अमृतचन्द्रदेव तत्काल लिखते हैं कि " इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः - इसप्रकार अप्रतिबुद्ध ने २६वीं गाथा में जो युक्ति रखी थी, उसका निराकरण कर दिया।" इसप्रकार हम देखते हैं कि २६वीं गाथा से आरम्भ और ३३वीं गाथा पर समाप्त इस प्रकरण में निश्चय स्तुति और व्यवहार स्तुति का स्वरूप तो स्पष्ट हुआ ही है; साथ में आत्मा और शरीर की अभिन्नता और भिन्नता का स्वरूप भी भली-भाँति स्पष्ट हो गया है । उक्त प्रकरण का गहराई से मंथन करने पर आत्मा और देह के एकत्व का व्यामोह निश्चित रूप से टूटेगा और देहादि परपदार्थों में से अपनापन टूटकर निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होगा । •
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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