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________________ समयसार अनुशीलन 322 दूसरी बात यह है कि स्वयं ही निरन्तर विश्व को प्रकाशित करने में चतुर और विकासरूप शास्वत प्रताप संपत्ति सहित वह भगवान आत्मा ही चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभाव के द्वारा जानता है कि 'परमार्थ से मैं एक हूँ।' यद्यपि समस्त द्रव्यों के परस्पर साधारण अवगाह का निवारण करना अशक्य होने से मेरा आत्मा और जड़पदार्थ श्रीखण्ड की भाँति एकमेक हो रहे हैं; तथापि श्रीखण्ड की ही भांति स्पष्ट अनुभव में आनेवाले स्वादभेद के कारण 'मैं मोह के प्रति निर्मम ही हूँ'; क्योंकि सदा अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है। इसप्रकार भावक-भाव से भेदज्ञान हुआ।" __यहाँ श्रीखण्ड का उदाहरण देकर समस्त द्रव्यों का परस्पर एक क्षेत्रावगाह भी समझाया और परस्पर की भिन्नता भी स्पष्ट कर दी गई है। श्रीखण्ड दही और चीनी मिलाकर बनाया जाता है। श्रीखण्ड में दही और चीनी एक जैसे ही दिखाई देते हैं; पर चखने पर दही की खटास और चीनी की मिठास अलग-अलग जानने में आती है; इससे पता चलता है कि मिले हुए दिखाई देने पर भी वस्तुत: वे मिले हुए नहीं हैं ; क्योंकि यदि पूर्णत: मिल जाते, मिलकर एक हो जाते तो उनका भिन्न-भिन्न स्वाद आना संभव नहीं था। ___ इसीप्रकार जाननेवाली ज्ञातृता और जानने में आनेवाला मोह यद्यपि अज्ञानी को अभेद ही अनुभव में आते हैं; तथापि स्वादभेद के कारण उनकी भिन्नता जानी जा सकती है। निराकुलस्वादवाला ज्ञान और आकुलतास्वादवाला मोह ज्ञान में पृथक्-पृथक् ही भासित होते हैं। इससे ज्ञानी आत्मा निर्णय कर लेते हैं कि 'आकुलतास्वादवाला मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो निराकुलस्वादवाला ज्ञान ही हूँ ।' - इसी को ज्ञानीजन मोह से निर्ममता कहते हैं। इस गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी कहते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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