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________________ 85 गाथा ७ उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि अनुस्यूति से रचित प्रवाह गुण है, पर्याय नहीं। काल का अन्वय (अखण्ड प्रवाह) गुण है और काल का व्यतिरेक पर्यायें हैं । इसप्रकार काल की अखण्डता दृष्टि के विषय में आने पर भी पर्यायें उसमें नहीं आतीं। __ गुण, प्रदेश और पर्याय क्रमशः भाव, क्षेत्र और काल के वाचक हैं । सामान्य और विशेष द्रव्य के भेद हैं, एक और अनेक भाव के भेद हैं, अभेद और भेद क्षेत्र के भेद हैं और नित्य और अनित्य काल के भेद हैं । इनमें द्रव्यदृष्टि का विषय सामान्य, एक, अभेद एवं नित्य द्रव्य बनता है और पर्यायदृष्टि का विषय विशेष, अनेक, भेद एवं अनित्य पर्यायें बनती हैं। पर्यायदृष्टि का विषय बनने के कारण विशेष, अनेक, भेद एवं अनित्यता को पर्याय कहा जाता है और द्रव्यदृष्टि का विषय बनने के कारण सामान्य, एक, अभेद एवं नित्यता को द्रव्य कहा जाता है। यही द्रव्य द्रव्यदृष्टि का विषय बनता है और इसी के आश्रय से सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है। इस द्रव्य में सामान्य के रूप में द्रव्य, एक के रूप में अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड, अभेद के रूप में असंख्यप्रदेशों का अखण्डपिण्ड और नित्य के रूप में अनन्तानन्त पर्यायों का सामान्यांश या वृत्ति का अनुस्यूति से रचित प्रवाह शामिल होता है। इसप्रकार दृष्टि के विषय में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अखण्डता-एकता विद्यमान रहती है। प्रश्न – यहाँ तो आपने विशेष को पर्यायार्थिकनय का विषय बताकर दृष्टि के विषय में से निकाल दिया है, पर ७३वीं गाथा की टीका में तो सामान्य-विशेषात्मक द्रव्य को ही दृष्टि का विषय बताया गया है। उत्तर -वहाँ सामान्य का अर्थ दर्शनगुण एवं विशेष का अर्थ ज्ञानगुण लिया गया है। अत: वहाँ सामान्य-विशेषात्मक द्रव्य का अर्थ ज्ञान-दर्शन स्वभावी भगवान आत्मा ही है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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