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________________ 84 समयसार अनुशीलन उक्त तथ्य की गहराई में जाने से एक बात स्पष्ट होती है कि यदि विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का व्यतिरेक है और प्रवाहक्रम का कारण परिणामों का व्यतिरेक है तो प्रदेशों और परिणामों का अन्वय - अनुस्यूति से रचित विस्तार और प्रवाह; क्षेत्र और काल की समग्रता (अखण्डता) का कारण होना चाहिए। इसप्रकार यह सहज ही फलित होता है कि वस्तु की समग्रता क्षेत्र की अखण्डता है और वृत्ति की समग्रता काल की अखण्डता है। तात्पर्य यह है कि प्रदेशों में सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित विस्तार ही क्षेत्र की अखण्डता है और पर्यायों में सर्वदा परस्पर अनुभूति से रचित प्रवाह ही काल की अखण्डता है। इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रवाह की निरन्तरता को भी नित्यता कहते हैं, क्योंकि नित्यता और अनित्यता में काल की अपेक्षा ही मुख्य है । अतः नित्य का अर्थ; वस्तु की सदा उपस्थिति' मात्र इतना ही अभीष्ट नहीं है, अपितु उसमें प्रवाह की निरन्तरता भी सम्मिलित है। यह नित्यता ही काल की अखण्डता है, जो दृष्टि के विषयभूत द्रव्य का अभिन्न अंग है। प्रश्न – इसप्रकार काल की अखण्डता को सुरक्षित रखने से द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य में अर्थात् दृष्टि के विषय में पर्याय शामिल नहीं हो जावेगी क्या ? क्योंकि परिणामों के अन्वय को ही तो काल की अखण्डता कहा जा रहा है। जब परिणामों का अन्वय दृष्टि के विषय में आ गया तो परिणाम ही आ गये समझिये। उत्तर-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आचार्य जयसेन अन्वय को गुण का और व्यतिरेक को पर्याय का लक्षण कहते हैं। उनके मूल शब्द इसप्रकार हैं - "अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवा गुणा इति गुणलक्षणम्। व्यतिरेकिण: पर्याया अथवा क्रमभुवः पर्याया इति पर्याय लक्षणम्।" १. प्रवचनसार ९३वीं गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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