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________________ 44 समयसार अनुशीलन यहाँ एकत्वनिश्चयगत समय का अर्थ स्पष्ट करते हुए सभी पदार्थों के सम्बन्ध में चार बातें स्पष्ट की गई हैं - (१) जीवादि सभी पदार्थ अपने में ही मग्न हैं, अपने गुण-पर्यायों को ही आलिंगित करते हैं, पर को स्पर्श तक नहीं करते। (२) वे एकक्षेत्रावगाहरूप से अत्यन्त निकट रहने पर भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।। (३) पररूप परिणमन न करने से वे टंकोत्कीर्ण की भाँति अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को धारण किये रहते हैं, उनकी व्यक्तिता (व्यक्तित्वइकाई) नष्ट नहीं होती। (४) उत्पाद और व्यय तथा उत्पाद -व्यय और ध्रौव्य जैसे विरोधी स्वभावों को एक साथ धारण करके वे विश्व को टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं। वे पर को स्पर्श नहीं करते, स्वभाव से च्युत नहीं होते और अपनी इकाई को कायम रखते हुए विश्व को टिकाये रखते हैं । जगत के सभी द्रव्यों में ये विशेषतायें समानरूप से पाई जाती हैं । यद्यपि जीव नामक पदार्थ में भी उक्त विशेषतायें पाई जाती हैं, तथापि उसके बंधन की जो बात है, वह विसंवाद पैदा करती है। ___ जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छूता ही नहीं है, अपने स्वभाव से च्युत होता ही नहीं है, टंकोत्कीर्ण की ही भाँति अपनी इकाई को टिकाये रखता है; तो फिर आत्मा ही दूसरे से क्यों बँधे? इस बंध की कथा ने ही तो आत्मा के स्वसमय और परसमय - ऐसे दो भेद किये हैं। इस द्विविधपने ने ही तो आत्मा के सौन्दर्य को खण्डित किया है । अत: अन्य द्रव्यों के समान आत्मा को भी द्विविधता इष्ट नहीं। एकत्व में ही सौन्दर्य है – इसलिए आत्मा को एकत्व ही इष्ट है। आचार्य जयसेन इस गाथा की व्याख्या करते हुए एकत्वनिश्चयगत का अर्थ अपने शुद्धगुण-पर्यायों से परिणत अथवा अभेदरत्नत्रयपरिणत
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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