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गाथा ३
इसलिए बंध की कथा में कोई दम नहीं है, एकत्व की कथा ही करने योग्य है।
प्रश्न –विरुद्ध और अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व का उपकार करते हैं; विश्व को टिकाये रखते हैं। - इस कथन का क्या आशय
है?
उत्तर –उक्त कथन का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"द्रव्य की पर्याय में जो उत्पाद-व्यय है, वह परस्पर विरुद्ध कार्य है। धवल ग्रन्थ में आता है कि एकसमय की पर्याय में उत्पाद-व्यय अर्थात् उपजना व विनशना - इसप्रकार दो परस्पर विरुद्ध कार्य होते हैं । जिससमय द्रव्य की वर्तमान पर्याय उत्पन्न होती है, उसीसमय पूर्व की पर्याय का व्यय होता है। उत्पाद् भावरूप है और व्यय अभावरूप है। इसकारण उत्पाद को व्यय से विरुद्ध कहा जाता है। ऐसा होते हुए भी गुण गुणपने से त्रिकाल कायम रहते हैं, इससे वे अविरुद्ध हैं । ऐसा विरुद्ध-अविरुद्ध वस्तु का स्वरूप ही है।
एकसमय की पर्याय में जो उत्पाद-व्यय है, वह परस्पर विरुद्धभाव है और गुण कायम रहते हैं, वह अविरुद्धभाव हैं । इसतरह विरुद्ध और अविरुद्ध कार्य अर्थात् अनन्त द्रव्यों का उत्पाद-व्ययरूप विरुद्धभाव
और गुणरूप अविरुद्धभाव – इन दोनों के हेतुपने से हमेशा विश्व का उपकार करते हैं । अर्थात् द्रव्य के गुण-पर्यायरूप स्वरूप के द्वारा विश्व के समस्त पदार्थ जैसे हैं, वैसे ही टिके रहते हैं।"
प्रत्येक द्रव्य का परिणमन अपने में ही होता है, कोई भी द्रव्य पररूप परिणमन नहीं करता। इसकारण प्रत्येक द्रव्य का व्यक्तित्व सदा स्वतंत्र ही रहता है, उसकी व्यक्तिता कभी नष्ट नहीं होती; वह अपनी स्वतंत्र इकाई के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहता है। यही कारण है कि सभी पदार्थ टंकोत्कीर्ण की भाँति सदा स्थित रहते हैं। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ ६३