SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन दूसरी गाथा में समय का द्विविधपना बताया था और यहाँ उसका निषेध किया जा रहा है, उसमें बाधा उपस्थित की जा रही है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि जब प्रत्येक द्रव्य भिन्न-भिन्न ही हैं, अपने-अपने में ही रहते हैं, कोई किसी को छूता भी नहीं है तो फिर आत्मा का पुद्गल के प्रदेशों में स्थित होना कैसे संभव है ? इस बंध की कथा में ही विसंवाद है अथवा यह बंध की कथा ही विसंवाद पैदा करनेवाली है। जब दो द्रव्य परस्पर मिलते ही नहीं तो बंधने की बात में दम ही क्या है? जब आत्मा बंधा ही नहीं है तो उसके परसमयपना ही नहीं ठहरता है। जब परसमयपना ही नहीं है तो फिर स्वसमय कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि स्वसमय तो परसमय की अपेक्षा कहा जाता है। अत: समय तो समय है, वह न स्वसमय है न परसमय है। इस बंध की कथा ने ही ऐसे दो भेद किये हैं; अत: यह बंधकथा ही विसंवाद पैदा करनेवाली है, दुविधा पैदा करनेवाली है। यदि विसंवाद मिटाना है तो बंध की बात ही मत करो, एकत्वविभक्त आत्मा की कथा ही श्रेष्ठ है। बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली और एकत्व-विभक्त आत्मा की कथा विसंवाद मिटानेवाली है। यही बात तो आगे चौथी-पांचवीं गाथा में कहनेवाले हैं कि तुमने अबतक काम, भोग और बंध की कथा ही सुनी है; अब मैं तुम्हें एकत्व-विभक्त आत्मा की कथा सुनाऊँगा। आचार्यदेव को बंध की कथा में कोई रस नहीं है, वे तो आत्मा के एकत्व को ही समझाना चाहते हैं । वे तो यहाँ भी साफ-साफ कह रहे हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्तर में रहनेवाले अनन्तधर्मों को चूमते हैं, परन्तु पर को स्पर्श भी नहीं करते; एकक्षेत्रावगाह रूप से अत्यन्त निकट ठहर रहे हैं, पर अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy