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________________ 131 कलश ४ 'स्वयं वान्तमोहा' - का अर्थ भी कलश टीकाकार ने विशेष किया है, जो विचार करने योग्य है। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है - "सहजपने बमा है मिथ्यात्व - विपरीतपना, ऐसे हैं। भावार्थ इसप्रकार है .. अनन्त संसार जीव के भ्रमते हुए जाता है । वे संसारी जीव एक भव्यराशि है, एक अभव्यराशि है। उसमें अभव्यराशि जीव त्रिकाल ही मोक्ष जाने के अधिकारी नहीं। भव्यजीवों में कितने ही जीव मोक्ष जाने योग्य हैं। उनके मोक्ष पहुँचने का कालपरिमाण है। विवरण - यह जीव इतना काल बीतने पर मोक्ष जायगा - ऐसी नोंध केवलज्ञान में है। वह जीव संसार में भ्रमते-भ्रमते जभी अर्द्धपुद्गलपरावर्तन मात्र रहता है, तभी सम्यक्त्व उपजने योग्य है। इसका नाम काललब्धि कहलाता है। यद्यपि सम्यक्त्वरूप जीवद्रव्य परिणमता है, तथापि काललब्धि के बिना करोड़ उपाय जो किये जाएं तो भी जीव सम्यक्त्वरूप परिणमन योग्य नहीं - ऐसा नियम है। इससे जानना कि सम्यक्त्ववस्तु यलसाध्य नहीं, सहजरूप है।" प्रश्न - एक ओर तो कहते हैं कि जो पुरुष जिनवचनों में रमते हैं, वे तत्काल ही आत्मा को प्राप्त करते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि सम्यक्त्ववस्तु यत्नसाध्य नहीं, सहजरूप है । दोनों में सत्य क्या है? उत्तर - दोनों ही सत्य हैं, मुक्ति के मार्ग में दोनों का ही अद्भुत सुमेल है; क्योंकि जिनवचनों में रमणता भी सहज ही होती है । 'जिनवचसि रमन्ते' और 'स्वयं वान्तमोहा' दोनों ही पद मूल छन्द में एक साथ ही विद्यमान हैं। ___ कलशटीका के उक्त कथन में समागत विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि यह जीव इतना काल बीतने पर मोक्ष में जाएगा - ऐसी नोंध केवलज्ञान में है और काललब्धि के बिना करोड़ उपाय करो तो भी सम्यक्त्व नहीं होगा।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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